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रूपसि तेरे रूप अनेक


रूपसि तेरे रूप अनेक

प्रकृति तेरे कितने रूप, 
ममता की हो तुम प्रतिरूप।
बिन मांगे सब कुछ दे देती हो
पर उसका श्रेय कभी नहीं तुम लेती हो।
तुममें अतुलनीय वैभव छिपा
दिया तुमने इस ज़ग पर लुटा।

वैसे तो तुम सुन्दर हो हरदम
पर  होता रहता तुझ में परिवर्तन।
कभी सर्द सी कभी गरम
कभी कठोर तो कभी नरम।

जब तुम  होती हो पूर्ण यौवन पर
देख तुम्हें हर्षित हो जाता है तन मन।
तरुणाई तुम्हारी देखकर
अच्छे-अच्छों का का मचल जाता है मन ।
कवि लिखते रहते अपनी  रचना
करके तुम्हारी कल्पना।

प्रेमी युगल  इक दूजे में खो जाते
तुम्हें अपना माध्यम बना ।
वसंत ऋतु में ओढ़ लेती
जब तुम लाल,पीली चुनर।
लगता है मानो प्रेयसी आ रही हो
अपने प्रियतम से मिलकर ।

जेठ की तपती दुपहरी में तुम
ऐसे अकुला जाती हो ।
जैसे नई नवेली दुल्हन को
पिया कीअपने याद आती हो।

सावन भादो में रूप के तेरे क्या कहने!
प्रिय के मिलन की उत्कंठा में
लगती हो खुद का श्रृंगार करने।
मुंख को अपने छींटे देती
सावन की रिमझिम बूंदों से।
अंगों को अपने भिगोती हो
भादो की मूसलाधार बारिश में।

प्रिय का अभिनंदन करती हो
सज कर धज कर रजनी बाले।
अंबर में झिलमिल करते
तारे कितने प्यारे प्यारे।

पूस की ठंडी रातों में तुम
यूं शीतल  हो जाती हो।
अलसायी सी आंखों से जैसे
प्रिय को पास बुलाती हो।
कितना निर्मल तेरा अन्तरमन
प्रकृति तुम हो सुन्दरतम।


स्नेहलता पाण्डेय 'स्नेह\


प्रतियोगिता के लिए

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4 Comments

Swati chourasia

05-Dec-2021 06:55 AM

Very beautiful 👌

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Seema Priyadarshini sahay

05-Dec-2021 01:59 AM

बहुत खूबसूरत रचना

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